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Wednesday 11 October 2023

काम, लोभ, क्रोध

काम' की दो दिशाएँ हैं -

एक है 'लोभ' और दूसरी है 'क्रोध'। ।।

    

     काम के द्वारा उत्पत्ति की, लोभ के द्वारा पालन की और क्रोध के द्वारा संहार की प्रक्रिया चलती है और इन तीनों प्रक्रियाओं से सृष्टि संचालित होती है। तो, जिस प्रकार सृष्टि के मूल में ये तीनों तत्त्व विद्यमान हैं, उसी प्रकार व्यक्ति के मन के मूल में भी। जब ये तीनों सन्तुलित रूप में विद्यमान रहते हैं, तब व्यक्ति और समाज स्वस्थ रहते हैं, पर जब इनमें से एक की भी प्रबलता होती है, तब असन्तुलन पैदा हो जाता हैं और यह विकृति व्यक्ति को, समाज को अस्वस्थ बना देती है।

      'रामचरितमानस' में श्री राम को तो ईश्वर का पुर्णावतार निरूपित किया है, पर परशुरामजी को अंशावतार। फिर उन्हें और कुछ नीचे उतारकर 'आवेशावतार' कहकर अपूर्णावतार बताया गया है। एक ओर तो उन्हें ईश्वर का अवतार कहा गया और दूसरी ओर उनके साथ अपूर्णता जोड़ दी गयी। यह एक विचित्र विरोधाभास-सा प्रतीत होता है। पौराणिक भाषा में इसे यों रखा गया है कि भगवान्‌ राम के चरित्र में जिस परिपूर्णता के दर्शन होते हैं , वह परशुराम के चरित्र में विद्यमान नहीं हैं। यद्यपि उनका चरित्र महान्‌ है और उनके जीवन में उत्कृष्ट गुण विद्यमान हैं, किन्तु ऐसे उच्च पद के अधिकारी होते हुए भी उनके जीवन में अपूर्णता दिखायी देती है। वैसे तो वे काम और लोभ की विकृतियों के विजेता हैं -- न तो उनके जीवन में कभी काम दिखता है, न सत्ता पर अधिकार करने का प्रलोभन, परन्तु वे क्रोध को नहीं जीत सके। उनमें क्रोध की यह जो विकृति है, वही उनके चरित्र को अपूर्ण बना देती है। भगवान्‌ राम और लक्ष्मणजी का उनसे जो वार्तालाप है, उसका उद्देश्य मुख्यतः उनकी क्रोध की विकृति को दूर कर देना है । इसी प्रकार अनेक व्यक्ति होते हैं, जो उत्कृष्ट गुणसम्पन्न होते हुए भी काम या क्रोध या लोभ के अतिरेक के कारण असन्तुलित हो जाते हैं, और व्यक्ति की अस्वस्थता के फलस्वरूप समाज भी अस्वस्थ हो जाता है, वयोंकि मानस-रोगों में बड़ी संक्रामकता होती है।

    शारीरिक और मानसिक रोगों में जैसे कुछ साम्य है, वैसे ही भिन्नता भी। शारीरिक रोगों में कुछ तो छूत के होते हैं और शेष छूत के नहीं। रोगी के पास बैठने से छूत के रोग स्वस्थ व्यक्ति को भी लग जाते हे, पर जो छूत के रोगी नहीं हैं उनके पास बैठने पर यह बात लागू नहीं होती। किन्तु मानस-रोगों के सन्दर्भ में ऐसा विभेद नहीं है, वहाँ तो सारे रोग छूत के हैं। इसका अभिप्राय यह है कि जो मानसिक रूप से अस्वस्थ व्यक्ति का संग करेगा, उसमें भी किसी न किसी प्रकार की रुग्णता आ ही जाएगी। उदाहरणार्थ ,परशुराम तो क्रोध के अतिरेक के कारण अस्वस्थ थे ही, उन्होंने अपने क्रोध से अपने समीप आनेवाले लोगों को भयान्वित कर समाज को अस्वस्थ बना दिया । तब ईश्वर के ऐसे अवतार का प्रयोजन हुआ, जिसमें किसी प्रकार की अपूर्णता न हो, जिसके जीवन में सन्तुलन और समग्रता हो, और ऐसा अवतार हमें श्री राम के रूप में प्राप्त होता हैं। 'रामचरितमानस' में इस बात को कई दृष्टान्तों के माध्यम, से स्पष्ट किया गया है। 

     जैसे एक नदी है। नदी का जल जीवनदायी है। उसके अनेक उपयोग हैं। उसमें हम स्नान करत हैं, वस्त्र स्वच्छ करते हैं, खेत की सिंचाई करते हैं। पर यदि उस जल में अतिरेक हो गया यानी बाढ़ आ गयी, तो वही कल्याणकारी होने के बदलें दुःखदायी हो जाता है। इसी प्रकार व्यक्ति की स्वस्थता जो सब सम्बन्धित जनों को सुख देती है, वैसे ही उसकी अस्वस्थता उनके लिए दु:खदायी बन जाती है। जब साधारण व्यक्ति असन्तुलित होता है, तब परिवार में दुःख की सृष्टि करता है, पर विशिष्ट व्यक्ति का असन्तुलन तो सारे समाज को अस्वस्थ बना देता है, क्योंकि उसका सम्बन्ध सारे समाज से होता है। 'रामचरितमानस' में त्रिदोष के माध्यम से यही स्पष्ट करने की चेष्टा की गयी है कि व्यक्ति और समाज के जीवन में इन त्रिदोषों को कैसे सन्तुलित रखा जाय।

     इस सन्दर्भ में मैं आपको आयुर्वेद की और एक मान्यता बता दूँ। वह यह है कि भले ही व्यक्ति के शरीर में कफ, वात और पित्त ये तीन धातुएँ मुख्य है, तथापि उनमें कफ और पित्त स्वयं गतिशील नहीं हैं, अपितु वात ही इन दोनों को गति प्रदान करता हैं। महर्षि चरक के सामने जब यह प्रश्न किया गया कि कफ, वात और पित्त में किसे प्रमुखता दें, तो उन्होंने उत्तर में वात की मुख्यता ही प्रतिपादित की। तभी तो आयुर्वेदशास्त्र कफ और पित्त की चिकित्सा सरल मानता है, लेकिन वात की चिकित्सा को बड़ा कठिन। वात ही शरीर की अन्य धातुओं को सक्रिय बनाता है, इसलिए वही सारी विकृतियों के मूल में है। इस वात को नियंत्रित कर शरीर को स्वस्थ रखना कठिन कार्य है। इसी प्रकार मानस-रोगों के सन्दर्भ में लोभ और क्रोध की चिकित्सा तो अपेक्षाकृत सरल है, पर काम की चिकित्सा बड़ी कठिन है। 'रामचरितमानस' में विभिन्न दृष्टान्तों के माध्यम से यह स्पष्ट किया गया है कि लोभ और क्रोध के मूल में भी कहीं न कहीं पर काम ही विद्यमान है। यहाँ पर हमें 'काम' को व्यापक अर्थों में लेना होगा। सभी प्रकार की कामना को हम 'काम' कह सकते हैं। इस 'काम' की दो दिशाएँ हैं -- एक है 'लोभ' और दूसरी है 'क्रोध'। जब मनुष्य के मन में काम का जन्म होता है और जब उस कामना की पूर्ति होती है, तब उसके भीतर लोभ जन्म लेता है। काम की पूर्ति से मनुष्य को सन्तोष नहीं होता, अपितु उसकी इच्छा बढ़ती जाती है। कहा भी तो है -- 'जौ दस बीस पचास मिले सत होय हजारन लाखन की।' दूसरी ओर, यदि कामना को पूर्ति में बाधा आएगी, तो व्यक्ति में क्रोध उत्पन्न होगा। इस प्रकार जो कामना मूल में है, उसी का परिणाम होता है लोभ या फिर क्रोध। तभी तो भगवान्‌ श्रीकृष्ण 'गीता' में काम का परिणाम लोभ न बताकर सीधे क्रोध ही बताते हैं, कहते हैं -- 'संगात्संजायते काम: कामात्क्रोधोध्भिजायत' (२/६२) 'संग से कामना उत्पन्न होती है और कामना से क्रोध जन्म लेता है।' लगता है कि बीच की कड़ी टूटी हुई है। यह भी तो वे कह सकते थ -- 'कामात्‌ लोभोधभिजायते' । पर वह न कह वे कामना से क्रोध उत्पन्न होने की बात कहते हैं। कारण यह है कि व्यक्ति के मन में जब लोभ की वृत्ति उत्पन्न होगी, तो वह कभी सन्तुष्ट तो होगी नहीं, और असन्तोष क्रोध को ही जन्म देगा। इसीलिए उन्होंने काम के पश्चात्‌ सीधे क्रोध के ही उत्पन्न होने को बात कही। 

*राम राम जी*

Research Astrologers Pawan Kumar Verma (B.A.,D.P.I.,LL.B.)& Monita Verma Astro Vastu... Verma's Scientific Astrology and Vastu Research Center Ludhiana Punjab Bharat Phone number 9417311379 www.astropawankv.com