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Saturday 23 December 2023

गीता जयंती....

 || आज गीता जयंती है ||

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मार्गशीर्ष माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी पर गीताजयंती मनाई जाती है। इस साल 23 दिसंबर को गीता जयंती है। गीता हिंदू धर्म का एक पवित्र धार्मिक ग्रंथ है। गीता में भगवान श्री कृष्ण के उपदेशों का वर्णन है। भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन के माध्यम से संसार को गीता का पाठ तब पढ़ाया था, जब अर्जुन के कदम कुरुक्षेत्र युद्ध की युद्ध भूमि में डगमगाने लगे थे। श्री कृष्ण के उपदेशों को सुनकर अर्जुन अपने लक्ष्य को पूरा करने की ओर अग्रसर हुए। कहा जाता है कि गीता में जीवन की हर एक परेशानी का हल मिल जाता है। गीता में कही गई श्री कृष्ण की बातें आज भी जीवन में आगे बढ़ते रहने की प्रेरणा देती हैं। ऐसे में यदि आप भी सफल होना चाहते हैं तो गीता जयंती के अवसर पर गीता के कुछ उपदेश जरूर पढ़ें।


क्रोध पर नियंत्रण 

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भगवान श्रीकृष्ण गीता का उपदेश देते हुए अर्जुन से कहते हैं कि क्रोध से सभी तरह के कार्य बिगड़ने लगते हैं। क्रोध करने से इंसान का पतन आरंभ हो जाता है। साथ ही व्यक्ति अच्छे और बुरे परिणाम में फर्क करना भूल जाता है और वह पतन के राह पर चल देता है। इसलिए क्रोध करने से बचना चाहिए। 


व्यर्थ की चिंता से बचें-

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श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि कभी भी व्यक्ति को व्यर्थ की चिंता नहीं करनी चाहिए। हर किसी को एक न एक दिन मरना है, आत्मा न तो पैदा होती है और न ही ये मरती है। आत्मा अमर है, इसलिए व्यर्थ की चिंता को छोड़कर कर्म के रास्ते पर आगे बढ़ना चाहिए।


मन पर रखें काबू-

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प्रत्येक व्यक्ति को अपने मन पर नियंत्रण रखना चाहिए। गीता के उपदेश में श्री कृष्ण ने बताया है कि जो व्यक्ति अपने मन पर काबू करना सीख लेता है, वह हर तरह की बाधा को आसानी से पार कर सकता है। इसलिए व्यक्ति को हमेशा अपने मन पर नियंत्रण रखना चाहिए।


फल की इच्छा छोड़ कर्म पर ध्यान देना 

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श्रीकृष्ण कहते हैं कि मनुष्य को फल की इच्छा छोड़कर कर्म पर ध्यान देना चाहिए। मनुष्य जैसा कर्म करता है, उसे फल भी उसी के अनुरूप मिलता है, इसलिए अच्छे कर्म करते रहें। 


शास्त्रों के अनुसार द्वापर युग में इसी दिन भगवान श्री कृष्ण ने कुरुक्षेत्र में अर्जुन को गीता का ज्ञान दिया था इसीलिए इस दिन को गीता जयंती के रूप में मनाया जाने लगा। हिंदू धर्म में इस दिन का खास महत्व है। गीता के श्लोकों में नकारात्मकता को सकारात्मकता में परिवर्तित करने की अद्भुत शक्ति है। यह श्लोक जितने आज से 5160 पूर्व सार्थक थे, उतने आज भी हैं। यह श्लोक व्यक्ति को सपनों और निराशा की दुनिया से निकालकर जीवन की वास्तविकता से परिचित करवाते हैं।


मानस मे गीता 

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श्री रामचरितमानस मे 6 गीताए पायी जाती है ।

        उनके संक्षिप्त विवरण है -

1-अयोध्याकांड मे जिस प्रसंग मे निशाद राज को लक्षमण जी ने भगवान् श्री राम को ब्रह्म होने के प्रसंग मे समझाया है,वह लक्ष्मण गीता के नाम से जानी जाती है 


2-अरण्यण कांड मे जहाँ श्री शेष अवतारी लखन लालजी को श्री राम ने उपदेश दिया है , वो श्री राम गीता कहलाती है | 


3- लंका कांड मे जहॉ प्रभु श्री राम द्वारा युद्ध स्थल मे विभिषण जी के मोह को दूर किया गया है वो श्रीमद्भागवद्गीता है | 


4- उत्तर कांड मे जहाँ पूरवासियो को बूलाकर

       परमार्थ उपदेश दिया है ,वह पुरजन गीता है | 


5-6 उत्तर कांड मे ही पॉचवी और छठी गीता है जो "ज्ञान- भक्ति-निरुपण,ज्ञान-दीपक और भक्ति की महान्‌ महिमा" प्रसंग मे है और ज्ञान गीता और भक्ति गीता के नाम से जानी जाती है ।


     || गीता जयंती की हार्दिक शुभकामनाएं ||



                 

Thursday 21 December 2023

मूर्ति में भगवान......?

 || मूर्ति में क्यों बसते हैं भगवान...?||

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क्यों भगवान मूर्ति में उपस्थित हो जाते हैं और पत्थर की मूर्ति भगवान बन जाती है ? भगवान के अर्चावतार से सम्बधित एक भक्ति कथा ।


किसी नए काम को शुरू करने से पहले या किसी स्थान पर जाने से पहले यह कहा जाता है कि मंदिर के दर्शन अवश्य करने चाहिए। इसके पीछे मान्यता यह है कि मंदिर के वातावरण में मौजूद सकारात्मक ऊर्जा आपके मस्तिष्क को स्वच्छ और सजीव कर, आपको सही दिशा में सोचने के लिए विवश करे।भक्तों की उपासना के लिए मूर्ति में बसते हैं भगवान:- अन्तर्यामी रूप से भगवान सबके हृदय में हर समय विद्यमान रहते हैं, सिद्ध,योगी आदि समाधि में भगवान के अन्तर्यामी रूप का दर्शन कर सकते हैं परन्तु सभी लोग इस रूप में भगवान के दर्शन का आनन्द नहीं ले पाते हैं। 


भक्त अपने इष्ट का दर्शन कैसे करें? इसलिए भक्तों को दर्शन देने के लिए भगवान ने अर्चावतार धारण किया जो भगवान का सभी के लिए सबसे सुलभ रूप है।अर्चा का अर्थ है पूजा उपासना; इसके लिए होने वाले अवतार का नाम है अर्चावतार, मूर्तियों का ही दूसरा नाम अर्चावतार है।घर में,मन्दिरों में,तीर्थस्थानों पर,गोवर्धन आदि पर्वतों पर प्रतिष्ठित भगवान की मूर्तियां अर्चावतार कहलाती हैं।


श्रीएकनाथजी ने कहा है:-

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मी तेचि माझी प्रतिमा, तेथें नाहीं आन धर्मा'

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अर्थात् "मैं जो हूँ, वही मेरी प्रतिमा है,प्रतिमा 

      में कोई अन्य धर्म नहीं है।"


चार प्रकार के अर्चावतार:-

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(1) भगवान की कुछ मूर्तियां स्वयं प्रकट होती हैं,ये ‘स्वयं व्यक्त,स्वयंभू’ या ‘स्वत:सम्भूत’ कहलाती हैं।स्वत: सम्भूत मूर्तियां यों ही नहीं मिल जाती; ये उपासकों के लिए ही प्रादुर्भूत होती हैं, अत: इनकी उपासना शीघ्र ही सिद्ध हो जाती है, जहां ये प्रकट होती हैं, वे स्थान तीर्थ स्थल हो जाते हैं।


(2) कुछ मूर्तियां देवताओं द्वारा प्रतिष्ठित 

         की गयी होती हैं, वे ‘दैव’ मूर्तियां कहलाती हैं।


(3) कुछ मूर्तियां सिद्धों द्वारा स्थापित की गयी

         होती हैं, वे ‘सैद्ध’ मूर्तियां कहलाती हैं।


(4) अधिकांशत: मूर्तियां भक्तों, मनुष्यों द्वारा

        स्थापित होती हैं, वे ‘मानुष’ कहलाती हैं।


मूर्ति कैसे भगवान हो जाती है या भगवान कैसे प्रतिमा में उपस्थित हो जाते हैं?:-ब्रह्म भले ही निर्गुण हो पर उपासना के लिए वह सगुण हो जाता है और वह आकार विशेष ग्रहण करता है।जैसे भगवान विष्णु सर्वव्यापक हैं फिर भी उनकी उपलब्धि (संनिधि) शालग्रामजी में होती है। यदि शालिग्रामजी पर एकटक दृष्टि रखकर प्राण की गति के साथ ॐ का जप और भगवान का ध्यान किया जाए तो उपासक इसी में भगवान की झांकी पा सकते हैं।


हयशीर्षसंहिता में कहा गया है:- 

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उपासक के तप से,अत्यधिक पूजन से और इष्ट से प्रतिमा की एकरूपता से मूर्ति में भगवान उपस्थित हो जाते हैं।भगवान रामानुज ने कहा है कि ‘भक्तिरूप आराधना भगवान को प्रत्यक्ष कर देती है।’व्रज में अनेक स्थल हैं जहां उपासकों ने अपनी उपासना के बल से भगवान को स्वयं प्रकट किया है।परम उपासक श्रीकल्याण देवजी ने अपनी उपासना के बल से श्रीबलदाऊजी को, स्वामी हरिदासजी ने श्रीबांकेबिहारीजी को और श्रीगोपालभट्टजी ने श्रीराधारमणजी को प्रकट किया,और न जाने ऐसे कितने उदाहरण हैं।


जब भक्त अपनी भक्ति की शक्ति से भगवान को प्रकट करना चाहते हैं, भगवान की मूर्ति उसी समय भगवान हो जाती है। उसमें ज्ञान, शक्ति, बल, ऐश्वर्य, वीर्य और तेज आदि भगवत्ता के छहों गुण विद्यमान हो जाते हैं, भक्त उसे मूर्ति नहीं देखता बल्कि उसे अपना भगवान मानता है। मीराबाई के लिए द्वारकाधीश की निरी जड़ मूर्ति नहीं थी, स्वयं चिन्मय भगवान थे, मीरा की इच्छामात्र से उन्होंने उसे अपने में लीन कर लिया।


क्या मस्ती है यह हस्ती मिटाने में।

 मीरा देखती है गिरधर जहर के प्याले में॥


करमाबाई गोपाल में वात्सल्यभाव रखती थीं और गोपाल ने उन्हें यशोदा माता की तरह मातृभाव से देखा।करमाबाई की कुटिया में मैया की खिचड़ी का स्वाद उस सर्वेश्वर जगन्नाथ को ऐसा लगा कि वह अपनी आप्त कामता को भूलकर रो-रोकर उसको खिचड़ी के लिए पुकारता।


सांचो प्रेम प्रभु में हो तो, मुरती बोलै काठ की।

 जीमो म्हारा श्याम धणी, जिमावे बेटी जाट की॥


एक दिन करमाबाई परमात्मा के आनन्दमय धाम में चली गयीं, उस दिन भगवान बहुत रोए, श्रीजगन्नाथजी के श्री विग्रह के नयनों से अविरल अश्रुप्रवाह होने लगा। रात्रि में राजा के स्वप्न में प्रभु बोले:-आज माँ इस लोक से विदा हो गई, अब मुझे कौन खिचड़ी खिलाएगा?’सच्चे भाव से मूर्तिपूजन करने से भगवान प्रकट हो जाते हैं, इसका प्रमाण इस कथा में मिलता है:-


एक महात्माजी को अपने एक ब्राह्मण शिष्य के घर कई दिनों तक रहना पड़ा, महात्माजी के पास कुछ शालग्राम जी की मूर्तियां थीं। ब्राह्मण की छोटी-सी बच्ची नित्य महात्माजी के पास बैठकर उनको पूजा करते हुए देखती थी। एक दिन उस बच्ची ने महात्माजी से पूछा:- आप किसकी पूजा करते हैं?’ महात्माजी ने बच्ची को  छोटा समझकर कह दिया कि:- ‘हम सिलपिले भगवान की पूजा करते हैं।’बच्ची ने पूछा:- ‘सिलपिले भगवान की पूजा करने से क्या होता है?महात्माजी ने कहा:-सिलपिले भगवान की पूजा करने से मनचाहा फल प्राप्त होता है।बच्ची ने कहा:- ‘मुझे भी एक सिलपिले भगवानदे दीजिए, मैं भी आपकी तरह पूजा किया करुंगी।’भगवान के प्रति बच्ची का अनुराग देखकर महात्माजी ने एक शालिग्राम देकर उसे पूजा करने का तरीका बता दिया।वह कन्या सच्ची लगन से नित्य अपने ‘सिलपिले भगवान’ का पूजन करने लगी।


अपने इष्टदेव के अनुराग में वह ऐसी रंग गयी कि बिना भोग लगाये वह कुछ खाती-पीती नहीं थी। और अपने इष्ट का क्षणभर का वियोग भी उसे असह्य था।बड़ी होने पर विवाह के समय ससुराल जाते वक्त वह अपने सिलपिले भगवान’ को भी साथ लेती गयी।दुर्भाग्यवश उसे पति ऐसा मिला जिसे भगवान में विश्वास नहीं था, एक दिन पत्नी को पूजा करते देखकर उसके पति ने मूर्ति को उठा लिया और बोला:-‘इसे मैं नदी में डाल दूंगा।’ कन्या के बहुत अनुनय-विनय करने पर भी पति ने मूर्ति को नदी में फेंक दिया।उसी समय से कन्या अपने ‘सिलपिले भगवान’ के विरह में दीवानी हो गयी और हर समय यही रट लगाये रहती:-‘मेरे सिलपिले भगवन, मुझ दासी को छोड़कर कहां चले गए, शीघ्र दर्शन दो; आपका वियोग असह्य है।एक दिन वह भगवान के विरह में पागल होकर उसी नदी के किनारे पहुंच गयी और ऊंचे स्वर में अपने प्रभु को पुकार कर कहने लगी:- ‘शीघ्र आकर दर्शन दो, नहीं तो दासी का प्राणान्त होने जा रहा है।’ इस करुण पुकार के साथ ही एक अद्भुत स्वर गूंजा:- ‘मैं आ रहा हूं ’ उसी समय उस कन्या के समक्ष वही शालिग्रामजी की मूर्ति प्रकट हो गयी।जैसे ही वह शालिग्रामजी को हृदय से लगाने लगी, उस मूर्ति के अंदर से चतुर्भुजरूप में भगवान प्रकट हो गए, भगवान के दिव्य तेज से अन्य सभी लोगों की आंखें बंद हो गयीं। 


तभी एक दिव्य गरुणध्वज विमान आया और भगवान अपनी उस सच्ची भक्ता को विमान में बिठलाकर वैकुण्ठ लोक को चले गए और भगवान से विमुख उसका पति आंखें फाड़ कर देखता रह गया।


मूर्तिपूजा की महिमा:-

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अग्निपुराण में कहा गया है:- ‘यमराज का यमदूतों को निर्देश है कि वे मूर्ति की पूजा करने वालों को नरक नहीं लायें।श्रीएकनाथजी का कहना है:- कलियुग में मूर्ति (प्रतिमा) पूजा से बढ़कर भक्ति का और कोई साधन नहीं है..!!

    

            || जय श्री कृष्ण ||