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Tuesday, 16 September 2025

श्राद्ध पक्ष क्यों....

 श्राद्धपक्ष का रहस्य...

क्या हमारे ऋषि मुनि अंतर्यामी थे ?


जो कौवों के लिए खीर बनाने को कहते थे!

कहते थे कि कौवों को खिलाएंगे तो हमारे पूर्वजों को मिल जाएगा! नहीं, हमारे ऋषि मुनि क्रांतिकारी विचारों के थे। जानिए सही कारण...


तुमने कभी पीपल और बरगद के पौधे लगाए हैं ? या किसी को लगाते हुए देखा है? क्या पीपल या बड़ के बीज मिलते हैं? इसका जवाब है नहीं! बरगद या पीपल की कलम रोपने की कोशिश करो, परंतु नहीं लगेगी! कारण प्रकृति ने यह दोनों उपयोगी वृक्षों को लगाने के लिए अलग ही व्यवस्था कर रखी है।


यह दोनों वृक्षों के टेटे कौवे खाते हैं और उनके पेट में ही बीज की प्रोसेसींग होती है, तब जाकर बीज उगने लायक होते हैं। उसके पश्चात कौवे जहां-जहां बीट करते हैं, वहां वहां पर यह दोनों वृक्ष उगते हैं!


पीपल जगत का एकमात्र ऐसा वृक्ष है जो Round the Clock ऑक्सीजन O2  छोड़ता है और बरगद के औषधि गुण अपरम्पार है।

अगर यह दोनों वृक्षों को उगाना है तो बिना कौवे की मदद से संभव नहीं है, इसलिए कौवे को बचाना पड़ेगा और यह होगा कैसे?


मादा कौआ भादो महीने में अंडा देती है और नवजात बच्चा पैदा होता है। तो इस नयी पीढ़ी के उपयोगी पक्षी को पौष्टिक और भरपूर आहार मिलना जरूरी है, इसलिए ऋषि मुनियों ने कौवों के नवजात बच्चों के लिए हर छत पर श्राद्ध के रूप मे पौष्टिक आहार की व्यवस्था कर दी। जिससे कौवों की नई जनरेशन का पालन पोषण हो जाये। इसलिए श्राद्ध करना प्रकृति रक्षण के लिए नितांत आवश्यक है।


घ्यान रखना जब भी बरगद और पीपल के पेड़ को देखो तब अपने पूर्वज याद आएंगे, क्योंकि उन्होंने श्राद्ध दिया था इसीलिए यह दोनों उपयोगी पेड़ हम देख रहे हैं।


सनातन धर्म पे उंगली उठाने वालों, पहले सनातन धर्म को जानो फिर उस पर ऊंगली उठाओ। जब आपका विज्ञान भी नही था तब हमारे सनातन धर्म को पता था कि किस बीमारी का उपचार क्या है, कौन सी चीज खाने लायक है कौन सी नहीं ! 


ज्ञान का भंडार है हमारा सनातन धर्म और उनके नियम, मैकाले की शिक्षा पढ़ के अपने पूर्वजों, ऋषि मुनियों के नियमों पर ऊंगली उठाने के बजाय उसकी गहराई को जानिये...


गया  तीर्थ की कथा...


ब्रह्माजी जब सृष्टि की रचना कर रहे थे उस दौरान उनसे गया नामक असुर की रचना हो गई। गया असुरों के संतान रूप में पैदा नहीं हुआ था इसलिए उसमें आसुरी प्रवृति नहीं थी। वह देवताओं का सम्मान और आराधना करता था।


उसके मन में एक खटका था। वह सोचा करता था कि भले ही वह संत प्रवृति का है लेकिन असुर कुल में पैदा होने के कारण उसे कभी सम्मान नहीं मिलेगा इसलिए क्यों न अच्छे कर्म से इतना पुण्य अर्जित किया जाए ताकि उसे स्वर्ग मिले।


गयासुर ने कठोर तप से भगवान श्री विष्णुजी को प्रसन्न किया। भगवान ने वरदान मांगने को कहा तो गयासुर ने मांगा - आप मेरे शरीर में वास करें। जो मुझे देखे उसके सारे पाप नष्ट हो जाएं। वह जीव पुण्यात्मा हो जाए और उसे स्वर्ग में स्थान मिले।


भगवान से वरदान पाकर गयासुर घूम-घूमकर लोगों के पाप दूर करने लगा। जो भी उसे देख लेता उसके पाप नष्ट हो जाते और स्वर्ग का अधिकारी हो जाता। इससे यमराज की व्यवस्था गड़बड़ा गई। कोई घोर पापी गयासुर के दर्शन कर लेता तो उसके पाप नष्ट हो जाते। यमराज उसे नर्क भेजने की तैयारी करते तो वह गयासुर के दर्शन के प्रभाव से स्वर्ग मांगने लगता। यमराज को हिसाब रखने में संकट हो गया था।


यमराज ने ब्रह्माजी से कहा कि अगर गयासुर को न रोका गया तो आपका वह विधान समाप्त हो जाएगा जिसमें आपने सभी को उसके कर्म के अनुसार फल भोगने की व्यवस्था दी है। पापी भी गयासुर के प्रभाव से स्वर्ग भोंगेगे।


ब्रह्माजी​ ने उपाय निकाला। उन्होंने गयासुर से कहा कि तुम्हारा शरीर सबसे ज्यादा पवित्र है इसलिए तुम्हारी पीठ पर बैठकर मैं सभी देवताओं के साथ यज्ञ करुंगा।


उसकी पीठ पर यज्ञ होगा यह सुनकर गया​ सहर्ष तैयार हो गया। ब्रह्माजी सभी देवताओं के साथ पत्थर से गया को दबाकर बैठ गए। इतने भार के बावजूद भी वह अचल नहीं हुआ। वह घूमने-फिरने में फिर भी समर्थ था।


देवताओं को चिंता हुई। उन्होंने आपस में सलाह की कि इसे श्री विष्णु ने वरदान दिया है इसलिए स्वयं श्री हरि देवताओं के साथ बैठ जाएं तो गयासुर अचल हो जाएगा। श्री हरि भी उसके शरीर पर आ बैठे।


श्री विष्णु जी को भी सभी देवताओं के साथ अपने शरीर पर बैठा देखकर गयासुर ने कहा - आप सब और मेरे आराध्य श्री हरि की मर्यादा के लिए अब मैं अचल हो रहा हूं। घूम-घूमकर लोगों के पाप हरने का कार्य बंद कर दूंगा लेकिन मुझे श्री हरि का आशीर्वाद है इसलिए वह व्यर्थ नहीं जा सकता, श्री हरि आप मुझे पत्थर की शिला बना दें और यहीं स्थापित कर दें।


श्री हरि उसकी इस भावना से बड़े खुश हुए। उन्होंने कहा - गया! अगर तुम्हारी कोई इच्छा हो तो मुझसे वरदान के रूप में मांग लो।


गया ने कहा - "हे नारायण मेरी इच्छा है कि आप सभी देवताओं के साथ अप्रत्यक्ष रूप से इसी शिला पर विराजमान रहें और यह स्थान मृत्यु के बाद किए जाने वाले धार्मिक अनुष्ठानों के लिए तीर्थस्थल बन जाए।"


श्री विष्णु ने कहा - गया, तुम धन्य हो! तुमने लोगों के जीवित अवस्था में भी कल्याण का वरदान मांगा और मृत्यु के बाद भी मृत आत्माओं के कल्याण के लिए वरदान मांग रहे हो। तुम्हारी इस कल्याणकारी भावना से हम सब बंध गए हैं।


भगवान ने आशीर्वाद दिया कि जहां गया स्थापित हुआ वहां पितरों के श्राद्ध-तर्पण आदि करने से मृत आत्माओं को पीड़ा से मुक्ति मिलेगी। क्षेत्र का नाम गयासुर के अर्धभाग गया नाम से तीर्थ रूप में विख्यात होगा। मैं स्वयं यहां विराजमान रहूंगा।


इस तीर्थ से समस्त मानव जाति का कल्याण होगा। साथ ही वहा भगवान "श्री विष्णुजी​" ने अपने पैर का निशान स्थापित किया जो आज भी वहा के मंदिर में दर्शनीय है। गया विधि के अनुसार श्राद्ध फल्गू नदी के तट पर विष्णु पद मंदिर में व अक्षय वट के नीचे किया जाता है। बिहार के गया में श्राद्ध आदि करने से पितरों का कल्याण होता है।


पिंडदान की शुरुआत कब और किसने की यह बताना उतना ही कठिन है जितना भारतीय संस्कृति के उद्भव की कोई तिथि निश्चित करना, परंतु स्थानीय पंडों का कहना है कि सर्वप्रथम सतयुग में ब्रह्माजी ने पिंडदान किया था।  महाभारत के 'वन पर्व' में भीष्म पितामह और पांडवों की गया-यात्रा का उल्लेख मिलता है। श्रीराम ने महाराजा दशरथ का पिण्ड दान गया में किया था। गया के पंडों के पास साक्ष्यों से स्पष्ट है कि मौर्य और गुप्त राजाओं से लेकर कुमारिल भट्ट, चाणक्य, रामकृष्ण परमहंस व चैतन्य महाप्रभु जैसे महापुरुषों का भी गया में पिंडदान करने का प्रमाण मिलता है। गया में फल्गू नदी प्रायः सूखी रहती है। इस संदर्भ में एक कथा प्रचलित है -


भगवान श्री राम अपनी पत्नी सीताजी के साथ पिता दशरथ का श्राद्ध करने गया धाम पहुंचे। श्राद्ध कर्म के लिए आवश्यक सामग्री लाने वे चले गये तब तक राजा दशरथ की आत्मा ने पिंड की मांग कर दी। 


फल्गू नदी तट पर अकेली बैठी सीताजी अत्यंत असमंजस में पड़ गई। माता सीताजी​ ने फल्गु नदी, गाय, वटवृक्ष और केतकी के फूल को साक्षी मानकर पिंडदान कर दिया। 


जब भगवान श्री राम आए तो उन्हें पूरी कहानी सुनाई, परंतु भगवान को विश्वास नहीं हुआ। जिन्हें साक्षी मानकर पिंडदान किया था, उन सबको सामने लाया गया। पंडा, फल्गु नदी, गाय और केतकी फूल ने झूठ बोल दिया परंतु अक्षय वट ने सत्यवादिता का परिचय देते हुए माता की लाज रख ली।


इससे क्रोधित होकर सीताजी ने फल्गू नदी को श्राप दे दिया कि तुम सदा सूखी रहोगी जबकि गाय को मैला खाने का श्राप दिया, केतकी के फूल को पितृ पूजन मे निषेध किए। वटवृक्ष पर प्रसन्न होकर सीताजी ने उसे सदा दूसरों को छाया प्रदान करने व लंबी आयु का वरदान दिया। तब से ही फल्गू नदी हमेशा सूखी रहती हैं, जबकि वटवृक्ष अभी भी तीर्थयात्रियों को छाया प्रदान करता है। आज भी फल्गू तट पर स्थित सीता कुंड में बालू का पिंड दान करने की परंपरा संपन्न होती है।


श्राद्ध पक्ष के समय

*क्यों नहीं किए जाते हैं शुभ कार्य ?


श्राद्ध पितृत्व के प्रति सच्ची श्रद्धा का प्रतीक हैं। सनातन धर्मानुसार प्रत्येक शुभ कार्य के आरंभ करने से पहले मां-बाप तथा पितृ गण को प्रणाम करना हमारा धर्म है। क्योंकि हमारे पुरखों की वंश परंपरा के कारण ही हम आज जीवित रहे हैं। सनातन धर्म के मतानुसार हमारे ऋषि मुनियों ने हिंदू वर्ष में सम्पादित 24 पक्षों में से एक पक्ष को पितृपक्ष अर्थात श्राद्धपक्ष का नाम दिया। पितृपक्ष में हम अपने पितृ गण का श्राद्धकर्म, अर्ध्य, तर्पण तथा पिण्ड दान के माध्यम से विशेष क्रिया संपन्न करते हैं। धर्मानुसार पितृ गण की आत्मा को मुक्ति तथा शांति प्रदान करने हेतु विशिष्ट कर्मकाण्ड को 'श्राद्ध' कहते हैं। श्राद्धपक्ष में शुभकार्य वर्जित क्यों ? हमारी संस्कृति में श्राद्ध का संबंध हमारे पूर्वजों की मृत्यु की तिथि से है। अतः श्राद्धपक्ष शुभ तथा नए कार्यों के प्रारंभ हेतु अशुभ काल माना गया है। जिस प्रकार हम अपने किसी परिजन की मृत्यु के बाद शोकाकुल अवधि में रहते हैं तथा शुभ, मंगल, व्यावसायिक कार्यों को कुछ समय तक रोक देते हैं। उसी प्रकार पितृपक्ष में भी शुभ कार्यों पर रोक लग जाती है। श्राद्धपक्ष की 16 दिनों की समय अवधि में हम अपने पितृ गण से तथा हमारे पितृ गण हमसे जुड़े रहते हैं। अत: शुभ-मांगलिक कार्यों को वंचित रखकर हम पितृ गण के प्रति पूरा सम्मान व एकाग्रता बनाए रखते हैं।


शास्त्रों के अनुसार मनुष्य योनी में जन्म लेते ही व्यक्ति पर तीन प्रकार के ऋण समाहित हो जाते हैं। इन तीन प्रकार के ऋणों में से एक ऋण है पितृऋण अत: धर्मशास्त्रों में पितृपक्ष में श्राद्धकर्म के अर्ध्य, तर्पण तथा पिण्ड दान के माध्यम से पितृऋण से मुक्ति पाने का रास्ता बताया गया है।


पितृऋण से मुक्ति पाए बिना व्यक्ति का कल्याण होना असंभव है। शास्त्रानुसार पृथ्वी से ऊपर सत्य, तप, महा, जन, स्वर्ग, भुव:, भूमि ये सात लोक माने गए हैं। इन सात लोकों में से भुव: लोक को पितृलोक माना गया है। 


श्राद्धपक्ष की सोलह दिन की अवधी में पितृ गण पितृलोक से चलकर भूलोक आ जाते हैं। इन सोलह दिन की समयावधि में पितृलोक पर जल का अभाव हो जाता है, अतः पितृपक्ष में पितृ गण पितृलोक से भूलोक आकार अपने वंशजों से तर्पण करवाकर तृप्त होते हैं। अतः यह विचारणीय विषय है कि जब व्यक्ति पर ऋण अर्थात कर्जा हो तो वो खुशी मनाकर शुभकार्य कैसे सम्पादित कर सकता है। पितृऋण के कारण ही पितृपक्ष में शुभकार्य नहीं किए जाते। शास्त्र कहते हैं की पितृऋण से मुक्ति के लिए श्राद्ध से बढ़कर कोई कर्म नहीं है। श्राद्धकर्म का अश्विन मास के कृष्ण पक्ष में सर्वाधिक महत्व कहा गया है। इस समय सूर्य पृथ्वी के नजदीक रहते हैं, जिससे पृथ्वी पर पितृ गण का प्रभाव अधिक पड़ता है इसलिए इस पक्ष में कर्म को महत्वपूर्ण माना गया है। शास्त्रों के अनुसार एक श्लोक इस प्रकार है। 



एवं विधानतः श्राद्धं कुर्यात् स्वविभावोचितम्।

आब्रह्मस्तम्बपर्यंतं जगत् प्रीणाति मानवः ॥ 


अर्थात् - जो व्यक्ति विधिपूर्वक श्राद्ध करता है, वह ब्रह्मा से लेकर घास तक सभी प्राणियों को संतृप्त कर देता है तथा अपने पूर्वजों के ऋण से मुक्ति पाता है। अतः स्वयं पर पितृत्व के कर्जों के मुक्ति का मार्ग प्रशस्त होता है।

Monday, 8 September 2025

पितृ पक्ष ...पितरों का श्राद्ध

 || ॐ पितरेश्वराय नमः ||

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पितरों का श्राद्ध करो ,वो तुम्ह शक्ति देंगे

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संकल्प-

में अपना नाम....पिता का नाम....माँ का नाम.... गोत्र....भारत देश मे राज्य में में अपने घर आज श्राद्ध पक्ष के पुण्य पर्व पर अपने समस्त पितृओ को जल, धूप, दीप नैवेद्य दे रहा हुं। जिन्हें आंखों से देखा नहीं जिनके बारे में जानते नही वह भी पितृ आये और मेरे हाथ से धूप, दीप, नैवेध दे रहा हूँ । जिन्हें आंखों से देखा नहीं, जिनके बारे में सुना नहीं,जिनके बारे में जानते नहीं वो भी पितर आएं और मेरे हाथ से धूप,दीप,नैवेद्य ग्रहण करें ।


श्राद्ध पक्ष में किए जाने वाले महत्वपूर्ण प्रयोग –

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1- पूर्णिमा से लेकर अमावस्या तक 

  प्रतिदिन पंचबली का प्रयोग करें ।


पंचवली में मुख्य रूप से पांच बलि यानी दान से हैं- 

    गाय ,कुत्ता ,कौवा ,चींटी एवं ब्राह्मण ।


इनमें प्रतिदिन दोपहर 12:00 से पहले अपने घर में जो भी भोजन तैयार होता है उसे एक थाली में लेकर पांच जगह पर चार- चार रोटियों के ऊपर सब्जी,गुड़ आदि रखें 


2- मकान की दहलीज धोएं और कुमकुम

   से सीधे हाथ की तरफ स्वस्तिक बनाएं ।


स्वस्तिक पर बड़े दिए में कंडे 

  रखकर घी से प्रज्वलित करें ।


3-एक कटोरी में घी, गुड मिलाए एवं पूजन की संपूर्ण थारी लगाएं जिसमें हल्दी, कुमकुम ,चावल ,फूल (हो सके तो सफेद फूल ) रखें ।


4 -सभी पांच बली खुटों  में से थोड़ी -

     थोड़ी रोटी तोड़ कर घी,गुड़ में मिलाएं ।


5 धूप प्रक्रिया-

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(1) पहली धूप पहली पीढ़ी में पिता के वंश के माता के वंश में जो भी पितर है वो आए और मेरे हाथ से धूप,दीप नैवेद्य ग्रहण करें ।


(2) दूसरी धूप दूसरी पीढ़ी में पिता के वंश के माता के वंश में जो भी पितर है वो आएं और मेरे हाथ से धूप दीप नैवेद्य ग्रहण करें। 


(3) तीसरी धूप तीसरी पीढ़ी में पिता के वंश के माता के वंश में जो भी पितर है वो आएं और मेरे हाथ से धूप ,दीप ,नैवेद्य ग्रहण करें। 


(4) चौथी धूप चौथी पीढ़ी में पिता के वंश के माता के वंश में जो भी पितर है वो आएं और मेरे हाथ से धूप दीप नैवेद्य ग्रहण करें। 


(5) पांचवी धूप पांचवी पीढ़ी में पिता के वंश के माता के वंश में जो भी पितर है वो आएं और मेरे हाथ से धूप दीप नैवेद्य ग्रहण करें। 


(6) छठी धूप छठी पीढ़ी में पिता के वंश के माता के वंश में जो भी पितर है वो आएं और मेरे हाथ से धूप दीप नैवेद्य ग्रहण करें। 


(7) सातवीं धूप सातवी पीढ़ी में पिता के वंश के माता के वंश में जो भी पितर है वो आएं और मेरे हाथ से धूप दीप नैवेद्य ग्रहण करें। 


(8) आठवीं सधूप, नैवेद्य समस्त ज्ञात - अज्ञात पितरों के लिए जिन आंखों से देखा नहीं , जिनके बारे में सुना नहीं , जिनके बारे में जानते नहीं वह भी पितर आएं और मेरे हाथ से धूप ,दीप,नैवेद्य ग्रहण करें ।


(9) नवी धूप समस्त गुरु परंपरा के लिए जो भी समस्त गुरु परंपरा में गुरु हैं,वे आए और मेरे हाथ से धूप,दीप , नैवेद्य ग्रहण करें ।


(10) दसवीं धूप अपनी गायों एवं कुत्तों के लिए हमारे कुलपरंपरा में जो भी गौ माता एवं भैरव हैं वह आए वह मेरे हाथ से धूप, दीप,नैवेद्य ग्रहण करें ।


(11) हाथ में जल लेकर दिये के ऊपर से 3 बार घुमाएं और अंगूठे की धार से जमीन पर जल छोडे।जल छोड़कर घुटने टेक कर प्रणाम करें ।


आप सभी से निवेदन है कि आप अपने पित्रो को श्राद्ध तर्पण जरूर करें।


      || सर्व पितृदेवो प्रणाम आपको ||

                    

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Wednesday, 3 September 2025

चंद्र ग्रहण (7/8 सितंबर 2025,)

 *चंद्रग्रहण 07/09/2025*


*खग्रास चंद्रग्रहण*


*_तिथि_:* भाद्रपद शुक्लपक्ष पूर्णिमा, रविवार

*_दिनांक_:* 07 सितंबर 2025

*_दृश्यता_:* रात्री में समस्त भारत में दिखाई देगा


*_ग्रहण का सूतक_:* दिन में 12:58 बजे से प्रारंभ होगा

*_ग्रहण का समय_:*

- स्पर्श: रात्री 09:58 बजे

- मोक्ष: रात्री 01:26 बजे


*_ग्रहण का राशियों पर प्रभाव_:*

- शुभ फल: धनु, कन्या, वृषभ, मेष राशि

- मध्यम फल: मकर, तुला, सिंह, मिथुन राशि

- अशुभ फल: कुम्भ, वृश्चिक, कर्क, मीन राशि


*_ग्रहण का फल_:*

- प्राकृतिक आपदा-विपदा, रोग-उपद्रव , मानसिक तनाव कष्ट परेशानियां, चल अचल संपत्ति की हानि की संभावना

- राष्ट्र ब सर्व हित के अभ्युदय के लिए प्रार्थना करें और निष्ठा से कार्य करें


*_वस्तुओं पर प्रभाव_:*

- तेजी: लोहा, स्टील, तेल, घी, सोना, पीतल, हल्दी, मूंगफली, सरसो, तिल इत्यादि



*सर्वे भवन्तु सुखिनः!*


 *सुप्रभात*

*प्रातः वंदन* 

*राम राम जी*


*अपनी जन्मकुंडली के ग्रह, नक्षत्र, राशि भाव, दशा महादशा के अनुसार अपने अपने उपाय, परहेज़ दान, पूजा पाठ जप दान समय समय पर करते रहें इन्हे  कभी न भूलें*


          *सुप्रभात* 


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