राहु.. राजनीति
राजनीति में कभी भी सोच नहीं होती ..... केवल*वक्त और व्यक्तित्व* होता है
व्यक्तित्व भी वक्त के हिसाब से बदल दिए जाते हैं दरकिनार कर दिए जाते हैं वक्त के आगोश में खो जाते हैं।
राजनीति का मूल राहु है राहु सदैव ही परिवर्तनशील है कभी भी एक जैसा नहीं रहता वक्त को बहुत ही तेजी से पहचानता है अपना ही फ़ायदा देखता है और अपने लाभ के लिए परिवर्तन भी कर लेता है ।क्षण क्षण बदलता है जो क्षण क्षण ना बदले तो राहु कैसा..........
हालांकि यह एक पहलू यह भी है कि राजनीतिक समर्थक केतु होते हैं और राजनेता राहु होते हैं। समर्थक कई पीढ़ियों से या लंबे वक्त से इसी स्वभाव को जीते रहते हैं लेकिन राजनेता दल बदलने के समय समर्थकों से बात करने की तो दूर की बात है वो अपने चेहरे पर भाव भी नहीं लाते कि हम बदल रहे हैं। समर्थक तो बेचारे अपने आप को ठगा हुआ महसूस करते हैं।
हालांकि जब कभी बहुत ज्यादा निराश हो जाते हैं तब समर्थक केतू अपने आपको एक बहुत बड़ी भीड़ के रुप में यानी राहु के रूप में बदल जाते हैं लेकिन फिर से उसी भीड़ में से किसी व्यक्ति व्यक्तित्व को खड़ा करके खुद दोबारा फिर से केतु बन जाते हैं। फिर से दोबारा वही केतु वाला स्वभाव क़ायम हो जाता है फिर कोई कहता है कि मैं फलाने नेता जी के साथ हूँ और कोई तो फलाने नेता जी जैसा बन जाते हैं देखने सुनने में आता है
यानी कि ...*"पहुंची वहीं पर ख़ाक जहां का ख़मीर था"*